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Monday, November 26, 2012

Mahakavi Surdas - सूरदास की रचनायें

जीवन परिचय

हिन्ढी साहित्य में कृष्ण-भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में महाकवि सूरदास का नाम अग्रणी है। उनका जन्म १४७८ ईस्वी में मथुरा आगरा मार्ग के किनारे स्थित रुनकता नामक गांव में हुआ। 



सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषया में मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। अष्टछाप कवियों में एक । सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में १५८० ईस्वी में हुई। 

 

सूरदास की रचनायें और जीवन परिचय जन्म

सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। "साहित्य लहरी' सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के सम्बन्ध में निम्न पद मिलता है -

मुनि पुनि के रस लेख।
दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख ।।

इसका अर्थ विद्वानों ने संवत् १६०७ वि० माना है, अतएव "साहित्य लहरी' का रचना काल संवत् १६०७ वि० है। इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाण मिलता है कि सूर के गुरु श्री बल्लभाचार्य थे।

सूरदास का जन्म सं० १५३५ वि० के लगभग ठहरता है, क्योंकि बल्लभ सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए सूरदास की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् १५३५ वि० समीचीन जान पड़ती है। अनेक प्रमाणों के आधार पर उनका मृत्यु संवत् १६२० से १६४८ वि० के मध्य स्वीकार किया जाता है।

रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् १५४० वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् १६२० वि० के आसपास माना जाता है।

श्री गुरु बल्लभ तत्त्व सुनायो लीला भेद बतायो।
सूरदास की आयु "सूरसारावली' के अनुसार उस समय ६७ वर्ष थी। 'चौरासी वैष्णव की वार्ता' के आधार पर उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरान्तर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। बल्लभाचार्य से इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। "भावप्रकाश' में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे। "आइने अकबरी' में (संवत् १६५३ वि०) तथा "मुतखबुत-तवारीख' के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है।

जन्म स्थान

अधिक विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे।

खंजन नैन रुप मदमाते ।
अतिशय चारु चपल अनियारे,
पल पिंजरा न समाते ।।
चलि - चलि जात निकट स्रवनन के,
उलट-पुलट ताटंक फँदाते ।
"सूरदास' अंजन गुन अटके,
नतरु अबहिं उड़ जाते ।।

क्या सूरदास अंधे थे ?

सूरदास श्रीनाथ भ की "संस्कृतवार्ता मणिपाला', श्री हरिराय कृत "भाव-प्रकाश", श्री गोकुलनाथ की "निजवार्ता' आदि ग्रन्थों के आधार पर, जन्म के अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रुप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते।

श्यामसुन्दरदास ने इस सम्बन्ध में लिखा है - ""सूर वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे, क्योंकि श्रृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता। डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - ""सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अन्धा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।
रचनाएं

सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं -

१ सूरसागर
२ सूरसारावली
३ साहित्य-लहरी
४ नल-दमयन्ती
५ ब्याहलो

सूरदासजी की रचना 

व्रजमंडल आनंद भयो

व्रजमंडल आनंद भयो प्रगटे श्री मोहन लाल।
ब्रज सुंदरि चलि भेंट लें हाथन कंचन थार॥
जाय जुरि नंदराय के बंदनवार बंधाय।
कुंकुम के दिये साथीये सो हरि मंगल गाय॥
कान्ह कुंवर देखन चले हरखित होत अपार।
देख देख व्रज सुंदर अपनों तन मन वार॥
जसुमति लेत बुलाय के अंबर दिये पहराय।
आभूषण बहु भांति के दिये सबन मनभाय॥
दे आशीष घर को चली, चिरजियो कुंवर कन्हाई।
सूर श्याम विनती करी, नंदराय मन भाय॥



(आछे मेरे) लाल हो, ऐसी आरि न कीजै 

(आछे मेरे) लाल हो, ऐसी आरि न कीजै ।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई जोइ भावै सोइ लीजै ॥
सद माखन घृत दह्यौ सजायौ, अरु मीठौ पय पीजै ।
पा लागौं हठ अधिक करौ जनि, अति रिस तैं तन छीजै ॥
आन बतावति, आन दिखावति, बालक तौ न पतीजै ।
खसि-खसि परत कान्ह कनियाँ तैं, सुसुकि-सुसुकि मन खीजै ॥
जल -पुटि आनि धर्‌यौ आँगन मैं, मोहन नैकु तौ लीजै ।
सूर स्याम हठी चंदहि माँगै, सु तौ कहाँ तैं दीजै ॥



रे मन मूरख, जनम गँवायौ

रे मन मूरख, जनम गँवायौ।
करि अभिमान विषय-रस गीध्यौ, स्याम सरन नहिं आयौ॥
यह संसार सुवा-सेमर ज्यौं, सुन्दर देखि लुभायौ।
चाखन लाग्यौ रुई गई उडि़, हाथ कछू नहिं आयौ॥
कहा होत अब के पछिताऐं, पहिलैं पाप कमायौ।
कहत सूर भगवंत भजन बिनु, सिर धुनि-धुनि पछितायौ॥

विषय रस में जीवन बिताने पर अंत समय में जीव को बहुत पश्चाताप होता है। इसी का विवरण इस पद के माध्यम से किया गया है। सूरदास कहते हैं - अरे मूर्ख मन! तूने जीवन खो दिया। अभिमान करके विषय-सुखों में लिप्त रहा, श्यामसुन्दर की शरण में नहीं आया। तोते के समान इस संसाररूपी सेमर वृक्ष के फल को सुन्दर देखकर उस पर लुब्ध हो गया। परन्तु जब स्वाद लेने चला, तब रुई उड़ गयी (भोगों की नि:सारता प्रकट हो गयी,) तेरे हाथ कुछ भी (शान्ति, सुख, संतोष) नहीं लगा। अब पश्चाताप करने से क्या होता है, पहले तो पाप कमाया (पापकर्म किया) है। सूरदास जी कहते हैं- भगवान् का भजन न करने से सिर पीट-पीटकर (भली प्रकार) पश्चात्ताप करता है। 


आँगन मैं हरि सोइ गए री

आँगन मैं हरि सोइ गए री ।
दोउ जननी मिलि कै हरुऐं करि सेज सहित तब भवन लए री ॥
नैकु नहीं घर मैं बैठत हैं, खेलहि के अब रंग रए री ।
इहिं बिधि स्याम कबहुँ नहिं सोए बहुत नींद के बसहिं भए री ॥
कहति रोहिनी सोवन देहु न, खेलत दौरत हारि गए री ।
सूरदास प्रभु कौ मुख निरखत हरखत जिय नित नेह नए री ॥

भावार्थ :--`सखी ! श्याम आँगन में ही सो गये । दोनों माताओं (श्रीरोहिणी जी और यशोदा जी) ने मिलकर धीरे से (सँभालकर) पलंग सहित उठाकर उन्हें घर के भीतर कर लिया।' (माता कहने लगीं -)`अब मोहन तनिक भी घर में नहीं बैठते; खेलने के ही रंग में रँगे रहते (खेलने की ही धुन में रहते) हैं । श्यामसुन्दर इस प्रकार कभी नहीं सोये । (आज तो) सखी! निद्रा के बहुत अधिक वश में हो गये (बड़ी गाढ़ी नींद में सो गये ) (यह सुन के) माता रोहिणी कहने लगीं -`खेलने में दौड़ते-दौड़ते थक गये हैं, अब इन्हें सोने दो न ।' सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी के मुख का दर्शन करने से प्राण हर्षित होते हैं और नित्य नवीन अनुराग होता रहता है ।


Thursday, October 14, 2010

Surdas - Indian Poet



करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान रसरी आवत जात ते, 
सिल पर परत निसान.हरी दर्शन की प्यासीअखियाँ हरी दर्शन की प्यासी (३)
देखियो चाहत कमल नैन को..निसदिन रहेत उदासीअखियाँ निसदिन रहेत उदासी..
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासीआये उधो फिरी गए आँगन..
दारी गए गर फँसी..अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी..
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी..

केसर तिलक मोतियाँ की माला..
ब्रिन्दावन को वासी..अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी..
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी..
कहोके मंकी कोवु न जाने..
लोगन के मन हासी..
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी..
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी..
सूरदास प्रभु तुम्हारे दरस बिन..
लेहो करवट कासी..
अखियाँ हरी दर्शनदरसन की प्यासी..
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी.. 


The group of 16th-century Hindi poets, four of whom were disciples of Vallabha, and four of his son and successor, Vitthala.

The greatest of the group was Surdas, a blind singer whose descriptions of the exploits of the child-god Krishna are the highlights of his collection of poetry, the Sursagar, is admired throughout the Hindi-speaking areas of northern India. 

It is particularly rich in its details of daily life and in its sensitive perception of human emotion, the parent's for the child and the maiden's for her lover.  Other members of the Astchap group were Paramananddas, Nanddas, Karsandas, Govindswami, Kumbh-andas, Chitaswami, and Chaturbhujdas. What is commonly spoken of as Hindu is actually a range of languages, from Maithili in the east to Rajasthani in the west. 

The first major work in Hindi is the 12th-century epic poem Prthviraj Rasau, by Chand Bardai of Lahore, which recounts the feats of Prithviraj, the last Hindu king of Delhi before the Islamic invasions. 
The work evolved from the tradition maintained at the courts of the Rajputs. 

Noteworthy also is the poetry of the Persian poet Amir Khosrow, who wrote in the Awadhi dialect. 
Most of the literature in Hindi is religious in inspiration; in the late 15th and early 16th centuries, the reform-minded Kabir, for example, wrote sturdy short poems in which he sought to reconcile Islam and Hinduism. 

The most celebrated author in Hindi is Tulsidas, who renounced the world early in life and spent his days in Benares as a religious devotee. He wrote much, mostly in Awadhi, and focussed Hinduism on the worship of Rama. 

His most important work is the Ramcharit-manas, which is based on the Sanskrit Ramayana. More than any other work it has become a Hindu sacred text for the Hindi-speaking area and annually has been staged in the popular Ram Lila festival. 

Outstanding among the followers of Vallabha, philosopher and bhakti advocate of the Middle Ages, is the blind poet Surdas (died 1563), who composed countless bhajans (chants) in praise of Krishna and Radha, which are collected in the Sursagar. 

While many of the bhakti poets were of modest origin, an exception was Mira Bai, a princess of Jodhpur, who wrote her famous lyrics both in Hindi and Gujarati; the quality of her poetry, still very popular, is not as high, however, as that of Surdas. Significant also is the religious epic Padmavati by Jayasi, a Muslim from former Oudh state. Written in Awadhi (c. 1540), the epic is composed according to the conventions of Sanskrit poets. 

The 18th century saw the beginning of a gradual transformation from the older forms of religious lyric and epic to new literary forms influenced by Western models that began to be known. The new trends reached their pinnacle in the work of Prem Chand (died 1936), whose novels especially Godan and short stories depict common rural life; and in the work of Harishchandra of Benares (died 1885), honoured as Bharatendu, who wrote in the Braj Bhasa dialect.

Some of the modern Indo-Aryan languages have literary traditions reaching back centuries, with enough textual continuity to distinguish Old, Middle, and Modern Bengali, Gujarati, and so on. Bengali can trace its literature back to Old Bengali charya-padas, late Buddhist verses thought to date from the 10th century; Gujarati literature dates from the 12th century Shalibhadra's Bharateshvara-bahubali-rasa and to a period when the area of western Rajasthan and Gujarat are believed to have had a literary language in common, called Old Western Rajasthani. 

Jñaneshvara's commentary on the Bhagavadgita in Old Marathi dates from the 13th century and early Maithili from the 14th century, Jyotishvara's Varna-ratnakara, while Assamese literary work dates from the 14th and 15th centuries Madhava Kandali's translation of the Ramayana, Shankaradeva's Vaisnavite works. Also of the 14th century are the Kashmiri poems of Lalla Lallavakyani, and Nepali works have also been assigned to this epoch. 

The work of Jagannath Das in Old Oriya dates from the 15th century.Amir Khosrow used the term hindvi in the 13th century, and he composed couplets that contained Hindi. In early times, however, other dialects were predominant in the Madhya-desha as literary media, especially Braj Bhasa, Surdas' Sursagar, 16th century, and Awadhi, Ramcaritmanas of Tulsidas, 16th century. In the south, in Golconda, Urdu poetry was seriously cultivated in the 17th century, and Urdu poets later came north to Delhi and Lucknow. Punjabi was used in Sikh works as early as the 16th century, and Sindhi was used in Sufi (Islamic) poetry of the 17th-19th centuries. 

In addition, there is evidence in late Middle Indo-Aryan works for the use of early New Indo-Aryan; e.g., provincial words and verses are cited. The creation of linguistic states has reinforced the use of certain standard dialects for communication within a state in official transactions, teaching, and on the radio. 

In addition, attempts are being made to evolve standardized technical vocabularies in these languages. Dialectal diversity has not ceased, however, resulting in much bilingualism; for example, a native speaker of Braj Bhasa uses Hindi for communicating in large cities such as Delhi. 

Moreover, the attempt to establish a single national language other than English continues. This search has its origin in national and Hindu movements of the 19th century down to the time of Mahatma Gandhi, who promoted the use of a simplified Hindi-Urdu, called Hindustani. 

The constitution of India in 1947 stressed the use of Hindi, providing for it to be the official national language after a period of 15 years during which English would continue in use. When the time came, however, Hindi could not be declared the sole national language; English remains a co-official language. Though Hindi can claim to be the lingua franca of a large population in North India, other languages such as Bengali have long and great literary traditions--including the work of Nobel Prize winner Rabindranath Tagore, and equal status as intellectual languages, so that resistance to the imposition of Hindi exists. 

Wednesday, June 9, 2010

Jaipur Life in Poem

Jaipur - Hawa Mahal
Jaipur - Hawa Mahal

...

Here in Jaipur the old and new worlds meet;

The forts,the temples,and the palaces

Look out on legislative offices

And schools and hospitals.This wide grave street

Worn by three centuries of slippered feet

And tripping pads of camels branches out

In roads that go impartially to meet

Old pleasure-gardens and new factories.

Here is a future growing from past beauty

Owning past inspiration-and a duty

To all men of all trades to build a city

Known for flourish of its industries;

Its roads made smooth for ordinary men

And knowledge climbing stairs to soar again.

... 

Panorama View of Jaipur city
Panorama View of Jaipur city


Friday, April 23, 2010

Hindi Poems of Kumar Vishwas



Few days back I was viewing the videos of Kumar Vishwas on youtube. One has to go through several videos to find a new poem as most of videos will have repetitive stuff. Ofcourse you will love hearing from him everytime but I thought of just writing the poems down.

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shohrat na ata karna maula, daulat na ata karna maula
bas itna ata karna chahe jannat na ata karna maula
shammae watan ki lau par jab kurban patanga ho
hothon par ganga ho, haathon me tiranga ho
bas ek sada hi goonje sada barfeeli mast hawaon main
bas ek sada hi uthe sada jalte tapte sahraaon main
jeete ji iska maan rakhe, markar maryaada yaad rahe
hum rahe kabhi na rahe magar, iski saj dhaj aabad rahe
godhara na ho, gujrat na ho, insaan na nanga ho
hoton par ganga ho, haaton main tiranga ho


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Koi Diwana Kehta Hai (Kumar Vishwas Poetry - AWESOME)


Lyrics:
Koi Deewana Kehta Hai Koi Pagal Samajhta Hai
Magar Dharti Ki Bechani Ko Bus Badal Samajhta Hai
Mein Tujhse Door Kaisa Hoon, Tu Mujhse Door Kaisi Hai
Ye Tera Dil Samajhta Hai Ya Mera Dil Samajhta Hai

K Mohhabat Ek Ehsason Ki Pavan Si Kahani Hai
Kabhi Kabira Deewana Tha Kabhi Meera Deewani Hai
Yahan Sab Log Kehte Hain Meri Aakhon Mein Aansu Hai
Jo Tu Samjhe To Moti Hai Jo Na Samjhe To Pani Hai

Samander Peer Ka Aander Hai Lekin Ro Nahi Sakta
Ye Aansu Pyar Ka Moti Hai Isko Kho Nahi Sakta
Meri Chahata Ko Dulhan Tu Bana Lena Magar Sun Le
Jo Mera Ho Nahi Paya Wo Tera Ho Nahi Sakta

Bharar Koi Kumudani Par Machal Baitha To Hungama
Hamare Dil Mein Koi Khawab Pal Baitha To Hungama
Aabhi Tak Doob Kar Sunte The Sab Kissa Mohhabat Ka
Mein Kisse Ko Hakikat Mein Badal Baitha To Hungama